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आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय

अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4197
आईएसबीएन :0000

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अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र


सिद्ध पुरुषों के कई स्तर हैं, जिनमें यक्ष, गन्धर्व प्रमुख हैं। खलनायकों की भूमिका निभाने वालों को दैत्य या भैरव कहते हैं। उनकी प्रकृति तोड़-फोड़ में अधिक होती है। यक्ष राजर्षि स्तर के होते हैं तथा गन्धर्व कलाकार स्तर के। सिद्ध पुरुष तपस्वी योगी जनों की ही एक विकसित योनि है। भूलोक की मानवी समस्याओं को सुलझाने में प्रायः सिद्ध पुरुषों का ही बढ़ा-चढ़ा योगदान रहता है। इसलिए उनकी समीपता, सहायता के लिए ऐसी अभ्यर्थनाएँ की जाती हैं, जो उन्हें प्रभावित या आकर्षित कर सकें। उनका जिन्हें विशेष अनुग्रह प्राप्त होने लगता है, वे उन्हें “देव" भी कहने लगते हैं। यों ईश्वर की अनंत शक्तियों को अपनी-अपनी विशेषताओं के कारण “देव” नाम से भी जाना जाता है। वे अदृश्य होती हैं। फिर भी ध्यान साधने के लिए, सम्पर्क सम्बन्ध स्थापित करने के लिए उन्हें आलंकारिक रूप से किसी आकार की मान्यता दी जाती है। आकार के बिना न तो ध्यान बन सकता है और न तादात्म्य स्थापित हो सकता है। इसलिए निराकार की अभ्यर्थना के लिए उनके साकार रूपों की प्रतिष्ठापना की गई है। पूजा प्रयोजनों में, देवालय स्थापना में इन्हीं निरूपित प्रतिमाओं का प्रयोग होता है। इनकी समर्थता में दैवी शक्ति के अतिरिक्त साधक की श्रद्धा सघनता का भी भारी महत्त्व है। श्रद्धा के बिना दैवी विभूतियों को आकर्षित-स्थापित नहीं किया जा सकता। रामचरित मानस के प्रणेता ने तो श्रद्धा-विश्वास को भवानी-शंकर की उपमा दी है। वह बहुत हद तक सही भी है। झाड़ी का भूत और रस्सी का साँप बनते और उस मान्यता के अनुरूप भयानक प्रतिफल प्रस्तुत करते हैं। इसी प्रकार उच्चस्तरीय श्रद्धा भी देव दर्शन कराती हैं। एकलव्य के मिट्टी से बनाये गये द्रोणाचार्य, मीरा के गिरधर गोपाल, रामकृष्ण परमहंस की काली के उदाहरण ऐसे ही हैं, जिनमें जड़ प्रतिमाओं ने समर्थ सचेतन जैसी भूमिकाएँ सम्पन्न की। फिर सचेतन को देवता या सिद्ध-पुरुष स्तर तक पहुँचने की सम्भावना सुनिश्चित होने में संदेह क्यों किया जाए ?

यह चर्चा भावना के अनुरूप देव पुरुषों की, सिद्ध पुरुषों की सत्ता विनिर्मित करने संबंधी हुई। मुख्य प्रश्न यह है कि श्रद्धा के अभाव में भी देव सत्ताएँ अपने क्रिया-कलाप जारी रख सकती हैं या नहीं। इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि वे अपनी इच्छानुसार अभीष्ट गतिविधियाँ बिना किसी रोक-टोक के क्रियाशील रखे रह सकती हैं। आवश्यकतानुसार वे अपने सूक्ष्म शरीरों को स्थूल शरीरों में भी बदलती रहती हैं। मनुष्यों के साथ सम्पर्क साधने में उन्हें विशेषतया प्रकट स्वरूप

बनाना पड़ता है; पर वह कुछ समय के लिए ही होता है। उनकी स्वाभाविक स्थिति सूक्ष्म शरीर में ही बने रहने की होती है। इसलिए निश्चित प्रयोजन पूरा करने के उपरान्त वे पुनः अपनी स्वाभाविक स्थिति को अपना लेती हैं, सूक्ष्मता की स्थिति में चली जाती हैं। स्थूल शरीर का कलेवर बनाकर रहना उन्हें असुविधाजनक प्रतीत होता है। कारण कि उसके लिए उन्हें ऋतु प्रभाव से बचने, आहार, जल आदि की व्यवस्था जुटाने के लिए विशेष स्तर का प्रबंध करना पड़ता है। इस झंझट भरी व्यवस्था को वे थोड़े समय के लिए स्वीकारते हैं और अभीष्ट की पूर्ति के उपरान्त बिना झंझट वाली सूक्ष्म स्थिति में चले जाते हैं।

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    अनुक्रम

  1. अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय
  2. देवात्मा हिमालय क्षेत्र की विशिष्टिताएँ
  3. अदृश्य चेतना का दृश्य उभार
  4. अनेकानेक विशेषताओं से भरा पूरा हिमप्रदेश
  5. पर्वतारोहण की पृष्ठभूमि
  6. तीर्थस्थान और सिद्ध पुरुष
  7. सिद्ध पुरुषों का स्वरूप और अनुग्रह
  8. सूक्ष्म शरीरधारियों से सम्पर्क
  9. हिम क्षेत्र की रहस्यमयी दिव्य सम्पदाएँ

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